सांझी ज़मीं

दर्द सांझा, लहू सांझा, सांझी ये ज़मीं है
हरेक मगर इसमें एक टुकडा मांगता क्यों है?
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एक मजहब, एक ज़ात, एक ही जज़्बात है,
कमबख्त आदमी ही आदमी को नहीं पहचान पाता

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