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Showing posts from November, 2008

कुसूर

हद है,कुसूर भी माना उन्होंने कुछ अकड़ के कुछ बिगड़ के .... ***** कोई दर्द में हुआ हो तो हुआ करे उन्हें अपनी बेपरवाही पे गुरुर है देख कर एक नज़र उधर देखते हैं जाने उधर किस शय में क्या सुरूर है ??? ****** हर बात पे तोहमत लगाते हैं हर बात पे टोकते जाते हैं मेरे हबीब हैं वो खुदाया फिर क्योंकर दुश्मनी निभाते हैं ? ***** मेरे चाहनेवालों की फेहरिस्त में आज फिर एक नाम जुड़ गया उनकी आशिकी का दम भरते थे कभी आज वो दामन फैलाए खड़े हैं

रात की बातें

बस थक गए अब तेरे ख़त के इंतज़ार में कुसूर तेरा या नामाबर का अल्लाह जाने... ****** आपकी दोस्ती सर आँखों पे ए दोस्त मेरे यहाँ लोग कम हैं जो यूँ फ़र्ज़ निभातें हैं इन्तेहा-ए-जुर्म खुद करते हैं ज़माने भर में हम बेकसूरों पे सरेआम इल्जाम लगाते हैं **** तेरी रुसवाइयों के सदके मेरी बदनामियाँ हुई अब खौफज़दा तू क्यूँकर होता है दीवाने मेरे ... ****** हर लफ्ज़ में एक ही बात कहे जाते हैं वो बस शिकायत, और शिकायत, एक और शिकायत **** अब रात की बातें रातों पे छोड़ कर लो हम चल पड़े एक सुबह की तलाश में...

Bihar: बिहार की त्रसिदी को समर्पित ....

पानी के थपेडो में तूफान के अंधेरों में नाखुदा का इंतजार करती कितनी बेफरियाद है ये जिंदगी कुछ बेजार सी लगती है कुछ नाराज़ सी लगती है, अपनी तो है लेकिन बड़ी बरबाद है ये जिंदगी दुओं की आदत नहीं अजाब से खौफ नहीं बिन उम्मीद की बेहद नामुराद है ये जिंदगी हर रोज दिन से शुरू होकर हर रात यूँ ही सो जाती है क्या उस दुनिया में सबकी यूँ बेबुनियाद है ये जिंदगी हरसूं एक शोर है हरसूं एक सन्नाटा भी गूंगी बहरी लेकिन जिन्दा क्यूँ इतनी बेजार है ये जिंदगी सैलाब एक नाशादियों का भूख का बरबादियों का गहरे-उथले पानी में कैसे आबाद है ये जिंदगी एक उम्मीद बाकि है कहीं तो इंसानियत जागी है जोश -ए-जूनून की लेकिन क्यूँ मोहताज है ये जिंदगी कुछ रुकी रुकी सी कुछ थमी थमी सी एक नयी सुबह की करती इजाद है ये जिंदगी

सब्र

सब्र की मियाद ख़तम होने को है शायद कहीं से रुक्सती का एक पैगाम आया है राहों में दरख्त फिर से हरे हो गए अब, के एक हवा का झोंका उनके आने का संदेस लाया है ***** यादें शब् भर शम्मा बन जाने की ख्वाइश रखती हैं एक परवाना ही नहीं मिलता जो खुद जला सके ****** इस कदर उसने इतरा के मेरी तारीफ़ की एक दिन हर हर्फ़ मेरे सफ्हे का मुक्कम्मल हो गया ***** इस रंगत की शोखियों पर उनकी नज़रों की शरारत एक घड़ी में एक जिंदगी बिता दी यूँ ही तकते तकते ...

इरतिका-ए-जिंदगी

तुम कहते हो सुनो, दर्द उनकी सिसकियों का मैं कहती हूँ, मैंने देखा ज़ख्म जहाँ थे उस देश के लोगों को गवांरा था यूँ घुट के मरना उस देश की लोगों में लड़ने के हालात कहाँ थे हर सरकार लूटती थी हर शहर हर गली को उनके आगे चंद लोगों के नाल-ए-फरीयाद रवां थे फिर भी पत्थर कूटते उन हाथों में हर वक़्त मुल्क की इरतिका-ए-जिंदगी के अरमान जवां थे इरतिका-ए-जिंदगी - progress of life

मुकाम

उफ़!!! इतनी इज्ज़त मिली जिसके हम काबिल न थे ये मुकाम जो आज मिले हमे अब तक हासिल न थे ***** एक आदत सी पड़ गयी है उनको हमे छेड़ जाने की क्या कहें उनसे के अब रुत बीत गयी रूठने मनाने की हर पल इंतज़ार रहता था उनके आने का हमे, लेकिन वक़्त ने इजाज़त नहीं दी उन्हें मेरे पास आने की ****** तेरी ख्यालों में वक़्त गुज़रता है आजकल ज़हन में सिर्फ तेरा मुजस्मा समाता है हर लम्हा तेरे जानिब दिल खिंचता है हर ख्वाब तेरी आँखों में बसना चाहता है

उसका नशा

छलका के जो नज़रों से, मेरी जानिब देखा उसने हर मय का सुरूर कुछ फीका सा पड़ने लगा कैफ का काम करता था जो पैमाना मखमूर का तेरी आँखों की शराब में उसका नशा ढलने लगा **** इतनी बारिश में बिन छतरी के नंगे पावं छत पे वो आये लिल्लाह कैसे कैसे मेहनत-ए-पैहम किये मेरे एक दीदार को ***** हर रोज़ एक फूल भेजता है वो मुझे ख़त में लेकिन उसकी खुशबू ख़त ही चुरा लेता है मेरे दोस्त मगर तेरी भेजी तितलियों से ये दिल खेल कर खुद को बहला लेता है

एक अनजाना

कोई बंद दरवाजा दोबारा खटखटा रहा है एक अनजाना शख्स करीब आ रहा है अंदाज़-ए-बयानी का अंदाज़ कुछ नया सा है हाल-ए-दिल पहेलियों में सुना रहा है गुपचुप सारे जहां का हाल बताता है हर रोज़ एक नया किस्सा सुनाता है मेरे कानों में हौले से गुनगुनाकर न जाने कितने गीत बुनता जाता है हजारों ख्वाब मेरी सूनी पलकों पर अपने हाथों से सजा रहा है कोई बंद दरवाजा दोबारा खटखटा रहा है एक अनजाना शख्स करीब आ रहा है मेरी धडकनों में अपना नाम सुनता है मेरी साँसों से अपनी साँसें चुनता है उसकी कोशिशों की क्या मिसाल दूं, के उनको कामयाबी का जरिया बना रहा है कोई बंद दरवाजा दोबारा खटखटा रहा है एक अनजाना शख्स करीब आ रहा है ****** आपके खाव्बों की रहगुज़र से मेरा रस्ता भी गुज़रता है तस्कीनियाँ आपकी आरजू है, शादमानी मेरी हसरत हैं

सुबहों में मेरा बसेरा है

मेरे ख़्वाबों की ज़मीं ला-महदूद है हर शख्स का इधर बसेरा है यहाँ एक ख्वाब अनजाना सा है और एक ख्वाब सिर्फ मेरा है उनकी हस्ती को भुला दिया जो हर तोहफा ज़ख्मो भरा देते थे अब रातों से मुझे क्या काम जब सुबहों में मेरा बसेरा है ****** सद कोशिशें की उनसे दूर जाने की हर गाम पे यूँ लगा फिर आवाज़ लगाई...

सांझी ज़मीं

दर्द सांझा, लहू सांझा, सांझी ये ज़मीं है हरेक मगर इसमें एक टुकडा मांगता क्यों है? *** एक मजहब, एक ज़ात, एक ही जज़्बात है, कमबख्त आदमी ही आदमी को नहीं पहचान पाता

इंसान की सोच

सोचना फितरत है इंसान की सोचना फिर आदत बन जाती है ये इंसान की सोच ही होती है जो उसको चाँद की सैर कराती है सागर का सीना चीरना कोई बच्चों का खेल नहीं इंसान की सोच ही उसको जहाज़ बनाना सिखाती है आसमान की ऊँचाइयों पे कब्ज़ा है पंछियों का सदियों से एक सोच इंसान की उस आसमान तक जो झुका जाती है सोच अगर सही तो इर्तिका-ए-जिंदगी मिलती है सभी को अगरचे बेकार सोच इस जहाँ मैं सिर्फ तबाही मचाती है

किस्मत

दिल के अमीर अक्सर जेब से फकीर होते हैं बे-ज़मीरों की इस दुनिया चंद ही बा-ज़मीर होते हैं हक छीनने वाले चप्पे चप्पे पे मिल जायेंगे लेकिन हक का देने वाले शुमार में बसीर होते हैं हंस दे कोई मुफलिसी में तो खुदा का नेक बन्दा है गरीबी में ही इंसान नानक और कबीर होते हैं जुल्म करना आदमी की फितरत में मौजूद है ज़ुल्म सहने वाले आदमियत की तामीर होते हैं तू गम न कर, यहाँ हर तरह के लोग हैं कोई तकदीरवाले हैं कोई किस्मत से हकीर होते हैं

ढेर सारा अँधेरा

खाली कमरों में हम दिन गुजारते थे काली स्याह रातों का भी वहीँ डेरा था जिस शख्स को उन कमरों में खो दिया बस, दीवारों के इलावा वही शख्स मेरा था बड़ी भीड़ थी सामान की बंद दरवाज़े की पीछे धूल की परत भी बिस्तर पे छाई हुई थी बरसों से वीरान कमरे के आईने के पीछे तेरा गुमसुम साया और ढेर सारा अँधेरा था

Just.....

मस्त हैं हम जहां की मस्तियों में डूब कर कौन है भला जो हमसे निजात पा सके... कोशिशें लाख करते हैं ज़माने वाले रोज़ ब रोज़ ना किसी में दम नहीं जो हमारे नज़दीक आ सके ... **** हद है के वो उल्फत को अहसान समझ बैठे काली स्याह अब्र को आसमान समझ बैठे मेरी आवाज़ घायल थी दर्द के ज़ख्मों से उनकी नवाजिश थी के वो उसे आजान समझ बैठे *** यादों का काम है तड़पना और तडपाना इस नामाकूल से कौन कमबख्त ऐंठता है ....