paigaam aata hai, paigaam bhej dete hein, ek ek rukka unka yaadon mein sahej lete hein...
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Showing posts from June, 2011
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जिंदगी की सुबह बिछड़े थे, जिंदगी की शाम को मुलाक़ात हुई बहुत अरसा बीत गया दरमयां, बहुत मुद्दत के बाद उनसे बात हुई मासूमियत की जो पल साथ बिताये थे, हम तो अपनी मिलकियत समझ साथ ले आये थे हमने बहुत मौसम देखे उन दिनों मगर न जान सके उनकी जिंदगी में कितनी बरसात हुई सब्र किया बरस दर बरस और दिल ही दिल में गुफ्तगू होती रही हमारा क्या हम तो तभी उनके हो गए थे उनकी बीती हुई हर रात चाहे किसी और की सौगात हुई अब भी जो मिलीं तो परछाईयां मिलीं और परछाईयां पकड़ी नहीं जातीं हम ख्वाब और हकीक़त में फर्क भुला बैठे थे जब ख्वाब टूटा तो अपनी ही हालत दर्दनाक हुई
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प्यार की दीवानगी इंसान को खुदा बना देती है वरना कौन है जो ऐसे इस्तकबाल के काबिल है इस जहां में अब एक भी इंसान नहीं मिलता बस इक भीड़ है और भीड़ में खुदा का मिलना मुश्किल है हमारा क्या हम तो बुतपरस्ती को मजबूर हैं खुदा के करीब, लेकिन खुद से बहुत दूर हैं अपने जैसा एक दीवाना ढूढ़ते हैं दोस्तों में जो मेरी तरह दिलशाद है मेरे जैसा आदिल है जो चुप नहीं रहते, वो बगावत करते हैं और उन्हें ही आदतन तवज्जो दी जाती है हैरान है दिल ये देखकर के ज़माने में कामयाब वो हाथ है जो दस्त-ए-कातिल है.... जो दबा लेते हैं दर्द-ओ- जज़्बात यहाँ और मुस्कुराकर हर गम भुला देते हैं यहाँ ना-शऊर ही समझा जाता है उन्हें बेशक वो ज़माने के बेहतरीन फ़ाज़िल हैं .... मत छोड़ो जो तुम्हारा है, छीन लो या तबाह कर दो इस दुनिया का दस्तूर यही रह गया है खंजर सब आस्तीन में छुपाये बैठे हैं कटते वो मासूम हैं जो इस फितरत से गाफिल हैं
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musaafir hein, beet jaayenge raahon ke saath har mod par lekin rahbar badal jaata hai koi meel do meel saath chalta hai saath nibhane ko koi kadam do kadam chalkar saath chodd jata hai manzil ka manzar tak dikhta nahin, bus dhool ka ek badaa sa gubaar nazar aata hai gumshuda ho gaye hein khud ka pataa poochte hue har koi har baar mukhtalif raasta bataata hai...
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हाथ बिलकुल खाली हैं मगर दिल भरा है किसी का ख्याल अब तक मेरे ज़हन में खड़ा है देख कर खुदा की मेहरबानी उसका करम भूल गए के सर उसके सजदे में झुकने को अड़ा है क्या कोई इंसान बुतपरस्ती के काबिल है क्या कोई इंसान सचमुच इतना बड़ा है हर तरफ से मायूसी झांकती थी हर सुबह उसकी नवाजिश हुई तो ख़ुशी से दिल रो पड़ा है बुझा देता था चिरागों को रात रात भर जलाकर बहुत देर तक ये दिल अकेला अंधेरों से लड़ा है
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मिटा के ख़ाक कर दो कोई शिकायत नहीं बस मेरे वजूद पर मुझे शर्मिंदा मत करवाओ बहुत जान है अभी भी दौड़ती मेरी रगों में लहू बहा दो गरचे अरमां मत जलाओ बड़ी सख्त रूह है बड़ा सख्त जिस्म है तेरे सितम मुझे सर झुका के कबूल हैं सता लो जब तक जी न भरे कातिल मेरे मुलायम सपनो को आँखों से न चुराओ हर सांस लेने से पहले गर पूछना पड़े तो एक एक सांस सीने में भारी लगे छीन लो हर सांस मेरी कोई शिकवा नहीं बस मेरी जीने की उम्मीदों को न मिटाओ