जो सौंधी सी खुशबू तेरे बदन से आती है
जाने क्यों पहली बारिश की याद दिलाती है
जैसे सूखी मिटटी महकती है बूंदों से मिलकर
मुझे बाद वस्ल के वैसी ही महक सताती है...
जूनून चढ़ता है, उतरता है सैलाब की तरह
और मचलती लहरों की तरह बदन लहरातें हैं
धडकनों का शोर शायद सुनता कोई भी नहीं
हाँ, हर सांस तेरी मेरी बिन पीये बहक जाती है ...
आँखें मूँद कर पड़े रहते हैं औंधे से तकिये पर
न हवास रहता है न कोई खोज न कोई खबर
आलम मदहोशी का अंधेरों को मदहोश करता है
चादर उलझ कर हमारे पाँव पाँव से टकराती है ...
तिल तेरे जो दिन के उजालों में दिखते नहीं
रात को उँगलियाँ उन्हें छू छू कर देख लेती हैं
बहुत कुछ पढ़ लेते हैं जो छुपा रहता है आँखों में
नज़र से नज़र अगर भूले से मिल जाती है ...