वो क्या समझेंगे रिश्तों की अहमियत को
जो लफ़्ज़ों में खुद को उलझा बैठें हैं
अपने ही बनाए किलों में कैद हो गए हैं
और दोस्तों-दुश्मनों का फर्क भुला बैठें हैं
ये शिकायत नहीं, गुजारिश नहीं, जिद भी नहीं के
हम चुपचाप उनसे फैसले की उम्मीद लगाए बैठें हैं
उनकी महफ़िल में गए थे सर उठा कर
वो बीती के अब तक खुद से भी सर झुकाए बैठें हैं

Popular posts from this blog

अहसास-ए-गम

तमन्ना-ऐ-वस्ल-ऐ-यार