हम तो रकीबों के ज़ख्मों को भी प्यार से सहलाते रहे
एक वो जो दोस्त बनके हमारी चोट पर नमक लगाते रहे
मेरी किस्मत से रंज क्यूँ कर रखते थे वो भला
जब अपनी लकीरों को खुद वो खुद से उलझाते रहे
यह जानते थे वो भी के हम जल चुके हैं बिन जले
फिर क्यूँ गैरों के संग मिलकर हमे सुलगाते रहे
ज़माने भर के जो दाग सीने में छुपाये थे बरसों से,
वो महफ़िलों में मेरे उन ज़ख्मों की नुमाइश लगाते रहे
राज़ को राज़ रखना बड़ा मुश्किल था अगरचे
हर राज़ को दीवारों पर लिख कर वो सजाते रहे
हमने अब उस वफ़ा का वास्ता देना छोड़ दिया
जिस वफ़ा की आड़ में वो हमसे दामन बचाते रहे