मेरे ज़ख्म भी मुझे अब दर्द नहीं देते
के वो मेरे अपनों की ही सौगात हैं
फर्क समझते ही नहीं हबीब और रकीब में
कुछ उलझे हुए अब मेरे जज़्बात हैं
के वो मेरे अपनों की ही सौगात हैं
फर्क समझते ही नहीं हबीब और रकीब में
कुछ उलझे हुए अब मेरे जज़्बात हैं
रिम झिम... ये वृष्टि की टिपटिपाहट है .... या दिल में मचलते अरमानों की...???? ये मेरे आँखों में बरसते ख़्वाबों की आवाज़ गूंजती है.. या मेरे ख्यालों में उतारते तेरे जज़्बात की... पता नहीं... बस... एक अहसास है.. जो जब जब लहू के साथ नसों में दौड़ता है, कुछ लफ्ज़ खुद-ब-खुद पन्नो पे बिखर जाते हैं... और रिमझिम पर बरसने लगते हैं बस... ये ही है मेरी रिमझिम की शुरुआत की कहानी.... उम्मीद है आपको पसंद आएगी...