क्या करेंगे हम चाँद का हमे दीया ही काफी है
उसकी रौशनी पर सिर्फ मेरा ही इख्तेयार है
चाँद के नखरे कौन उठाये के उसको गुरूर है
के ज़माने भर को उसकी चांदनी से प्यार है ....
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हाँ मेरा दीया सिर्फ मेरे खातिर ही जलता है
उस वजूद का हर कतरा मेरे लिए पिघलता है
और चाँद बेचारा समझ ही नहीं पाता के वो
खुद जलता है या सूरज के इशारों पे चलता है
किस किस को बेचारा रोशन करे रात भर के
ज़माने भर का उम्मीदों का उसपर उधार है ...
मेरा दीया रातभर मेरे घर का अँधेरा मिटाता है
रोज़ रोज़ खुद को जलाता है और बुझाता है
और चाँद के उजाले पर कोई क्या भरोसा करे
कभी अपना आकर बढाता है कभी घटाता है
और फिर सो जाता है काली रातों में कई बार
होता जब भी अपनी ही चांदनी से बेज़ार है ...