शिकायतें

जब तेरे पास वक़्त ज्यादा था
ओर मुझपे वक़्त की महरबानियाँ न होती थीं
तब मेरे घर के दरीचे में अक्सर
उसकी परछाइयों की निशानियाँ होती थीं

वो हर लम्हा मुझपे निसार करता था
उसका हर ख्याल मुझसे ही वाबस्ता था
जब मेरे पास वक़्त कुछ कम होता था
तब उसको मेरे न मिलने पे परेशानियाँ होती थीं

सिर्फ मेरी बेबसी थी और उसकी बेशुमार शिकायतें
उसकी नाराज़गी थी ओर बेपनाह मोहब्बतें
लेकिन मेरे पास सिर्फ उसको देने को
मेरी मजबूरियों की कहानियां होती थीं

आज मेरे पास वक़्त है, उसके पास नहीं
हर लम्हा मेरा उसके तस्सव्वुर में गुज़रता है
अब मेरे यहाँ दौर-ए-खिजां है और उस तरफ
बहार है जहाँ कभी वीरानियां होती थीं

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