खुद को इतना झुकाओ के जिसके आगे झुको उसका हाथ तुम्हारे सर पर आकर ठहर जाए, मगर खुद को उसके क़दमों में यूँ मत गिराओ के वो तुम्हें ठोकर मार के बेरुखी से गुज़र जाए ...
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Showing posts from March, 2014
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फरिश्तों के साथ वक़्त क्या गुज़ारा दुरुस्त सारा बदरंग नज़ारा हो गया दिल ज़ाकिर जो हुआ, सो हुआ खैर वो मोहसिन खुदा का हमारा हो गया ... farishta - angel durust - positive badrang - negative zaakir - grateful khair - but mohsin - angel i spent some time with an angel and my negativity turned into positive energy. my heart is grateful to god for sending that angel to me...
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क्या मेरी तरह सब थक जाते हैं? जब जीवन में एक अर्ध विराम आता है जब ऐसा लगता है सब कुछ कर लिया और अब कुछ और नहीं है करने को ... जब बच्चे बड़े हो कर अपनी मंज़िल को पाने के लिए दूर देश निकल जाते हैं जब रिश्तों में एक ठहराव सा आ जाता है जब पुराने दोस्त बिछड़ने लगते हैं और नए दोस्तों कि ज़रुरत महसूस नहीं होती ... सुबह उठकर ये सोचते हैं आज क्या करें शाम तक दिन बिताना है मगर कैसे और रात को सोते वक़्त सोचा जाता है सुबह उठकर क्या बनाना है और क्यूँ ? उम्र ज़यादा नहीं है मगर कम भी नहीं है वक़्त गुज़र भी गया और बचा भी है जो वक़्त बीत गया वो शायद ठीक ही था मगर तब यूँ लगता था ये वक़्त बुरा है ... तब भी उससे शिकायतें थीं अब भी हैं शायद शिकायत करना आदत बन गयी है सबसे ही शिकायत करते हैं आदतन वक़्त से, दोस्तों से, दुश्मनों से, अपनों से और खुद से भी ... अभी जीना है क्यूंकि अभी उम्र बाकी है शायद इसलिए थक गयी हूँ शायद इसलिए थक गयी हूँ ....
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tere haath mein mera haath hai, mujhe zamaane se ab kya gharaz baaki kyu karoon logon ki nigaahon se parda tere aasre se ab hai hamara faraz baaki... bahot bebaak bahot waasiq hai sach mein ab bachi nahi is rishte mein koi laraz baaki kiske nishaane par hamari mohabbat hai lekin dooriyon mein bhi na koi daraz baki... gharaz - matlab aasre - dependence faraz - elevation waasiq - secure laraz - waver daraz - opening
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aadatan wo humse rooth jate hein aadatan hum unhe manaate hein phir bhi shikaayat rahti hai unhen k hum hi hein jo unhen satate hein ... kabhi baaten karne ko nahin hoti to bhi baaten khatam nahin hoti kabhi bahut kuch hota hai dil mei to din bhar unhen sunaate hein... kabhi judaai ka mausam aata hai toh waqt katna mushkil ho jata hai aalam-e-judaai me tab har ghadi dher se aansu hum bahaate hein ...
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woh meri deewaangi se waakif nahin meri mohabbat ka kuch aisa junun hai sare jahaan ki taskiiniyon ke baad bhi sirf uski baahon mein milta sukun hai nahi maante koi bandish zamaane ki meri ulfat mein sirf mera kanoon hai behisaab chaahte hein apne aashiq ko kyun daren ke ab bhi garm khoon hain haraarat bataati hai raaz bechaini ka k yeh jism uski taaseer se mahroom hai...
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कुछ बूँदें बादल की चुरा ली थी पिछली बारिश में उन्हें अब जोड़ के हम अपना इक बादल बनाएंगे जब सूख जायेगी गर्मी से हवाओं की मीठी ठंडक ओढ़ा कर उस बादल को अपनी छत पे बरसाएंगे कुछ तिनके भी चुराए थे परिंदों के आशियानों से उन्हें जोड़ के हम अपना इक आबोदाना बनायेगे जब उड़ा ले जायेगी आंधियां कच्चे घरोंदे हमारे ओढ़ा कर तिनके अपनी छत पे नशेमन सजायेंगे कुछ लम्हें भी चुरा लिए थे गुज़रते हुए वक़्त से उन्हें जोड़ कर अपने होने कि मियाद हम बढ़ाएंगे जब आलम होगा वक़्त-ए-रुख्सती का उस दिन ओढ़ा के वक़्त को हस्ती पे, थोड़ा और जी जायेंगे...
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न सुबह से कोई शिकायत है न शाम से भी कोई रंजिश है क्यूँ तेरा पहलु नसीब में नहीं ये सिर्फ वक़्त की साज़िश है जला देती है तेरी नामौजूदगी तेरे होने से दिल बहल जाता है कुछ तो बात है तेरे वजूद में कोई तो तुझमें ऐसी आतिश है मुझे अपने आगोश में रखना के ज़माने में दर्द बहोत दिए हैं कोई फासला न आये दरम्यान बस इतनी से एक गुज़ारिश है
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इतने करीब हों के धड़कन एक हो जाये सांस लें तो साँसे तेरी साँसों से टकराए आगोश में कसमसा जाएँ शाम होते ही बिखर जाएँ टूट के तो सहारा दे तेरी बाहें दूर जाना मुमकिन नहीं तुम जानते हो पास आना ही अब वक़्त की ज़रुरत है छुपा कर रख सको तो अहसान होगा बड़ी ज़ालिम हैं ज़माने की काली निगाहें हसरतों की बारात है चलो कुछ सवंर लें थोडा सा सज लें थोडा सा इत्र छिड़क लें उसके पहलु में आज की रात बितानी है यही सोच कर खुद पर ही हम इतराएँ
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जब भी मेरा ज़िक्र किया किसी रक़ीब ने मेरे मोहसिन ने वो महफ़िल ही छोड़ दी सरूर के नशे में उँगलियाँ उठायी लोगों ने तो उसने मय से भरी वो बोतल ही तोड़ दी मेरी जानिब उठते हुए कुछ तीर-ए -नज़र खंजर से भी तेज़ शमशीर से भी तीखे थे उसने सह कर हर वार अपने जिस्म पर वो दर्द की आंधियां अपनी तरफ मोड़ दी बिन मांगे बिना शर्त अपना साथ देता रहा मेरी हदों में अपनी हदें खुद ही समेटता रहा मेरा वजूद बिन मिटाये मुझे वजूद दिया मेरी रूह से बेसाख्ता अपनी रूह जोड़ दी
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बचपन में एक सोच थी के शायद ज़िंदगी का सबसे बड़ा पड़ाव पचास साल है ... पचास साल तक ज़िंदगी खुशनुमा हो जाती है गम दूर हो जाते हैं और ठहराव आने लगता है सबके सपने चाहे आधे अधूरे पूरे हो जाते हैं, नौकरी या कारोबार रोज़ी रोटी का सामान जुट जाता है, एक जीवन साथी मिल जाता है सुख दुःख के वक़्त का, रिश्ते जो बनने होते हैं बन जाते हैं रिश्ते जो टूटने होते हैं वो टूट कर फिर जुड़ जाते हैं , बच्चे बड़े हो कर अपनी राह पे चले जाते हैं, एक घर बन जाता है उम्र गुज़रने के बाद की उम्र गुज़ारने को, एक गाडी भी आ जाती है सफ़र की थकन उतारने को, दोस्ती के रिश्ते और गहरा जाते है, और दुश्मनों के चेहरों में भी दुश्मनी नज़र नहीं आती बस एक नाराज़ दोस्त ही दिखना शुरू हो जाता है, और पुरसुकून हो जाती है ज़िंदगी पचास के पार .... मगर ..... जब उम्र के उस पड़ाव के पास पहुंचे तो ये जाना के सारे सपने कभी पूरे नहीं हो पाते ... कहीं नौकरी है तो तनख्वाह नहीं कहीं कारोबार है तो ग्राहक नहीं, कहीं रोज़ी रोटी का जरिया ही नहीं ... कहीं जीवन साथी मिला नहीं कहीं जीवन साथी छूट गया और कहीं जीवन साथी बिछड़ गया