बचपन में एक सोच थी के शायद
ज़िंदगी का सबसे बड़ा पड़ाव
पचास साल है ...
पचास साल तक
ज़िंदगी खुशनुमा हो जाती है
गम दूर हो जाते हैं
और ठहराव आने लगता है
सबके सपने
चाहे आधे अधूरे
पूरे हो जाते हैं,
नौकरी या कारोबार
रोज़ी रोटी का सामान
जुट जाता है,
एक जीवन साथी मिल जाता है
सुख दुःख के वक़्त का,
रिश्ते जो बनने होते हैं
बन जाते हैं
रिश्ते जो टूटने होते हैं
वो टूट कर फिर जुड़ जाते हैं ,
बच्चे बड़े हो कर
अपनी राह पे चले जाते हैं,
एक घर बन जाता है
उम्र गुज़रने के बाद की
उम्र गुज़ारने को,
एक गाडी भी आ जाती है
सफ़र की थकन उतारने को,
दोस्ती के रिश्ते
और गहरा जाते है,
और दुश्मनों के चेहरों में भी
दुश्मनी नज़र नहीं आती
बस एक नाराज़ दोस्त ही
दिखना शुरू हो जाता है,
और पुरसुकून हो जाती है
ज़िंदगी पचास के पार ....

मगर .....

जब उम्र के उस पड़ाव के पास पहुंचे
तो ये जाना के
सारे सपने कभी पूरे नहीं हो पाते ...
कहीं नौकरी है तो तनख्वाह नहीं
कहीं कारोबार है तो ग्राहक नहीं,
कहीं रोज़ी रोटी का जरिया ही नहीं ...
कहीं जीवन साथी मिला नहीं
कहीं जीवन साथी छूट गया
और कहीं जीवन साथी बिछड़ गया ...
कहीं रिश्ते बन ही न सके
कहीं रिश्ते बन कर छूट गए
और कहीं बने हुए रिश्ते टूट गए ....
किसी की ज़िंदगी में बच्चे थे ही नहीं
किसी के बच्चे छूट गए
और कहीं बच्चों ने छोड़ दिया ...
कहीं घर बन ही नहीं पाया
कहीं घर बन कर टूट गया
और कहीं घर तो है मगर अपना नहीं ....
किसी की ज़िंदगी
बसों के धक्कों में गुज़र गयी
और गाडी की इच्छा ने रास्ते में
दम तोड़ दिया ....
कहीं दोस्त बन न सके
कहीं दोस्तों और दुश्मनों में
फ़र्क़ नहीं रहा
और कहीं दोस्त ही दुश्मन बन गए ...
और जो एक वहम
दिल ने बचपन से
पाल रखा था
के पचास के बाद
ज़िंदगी पुरसुकून हो जाती है
बस
वहम टूट गया .....

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