जब भी मेरा ज़िक्र किया किसी रक़ीब ने
मेरे मोहसिन ने वो महफ़िल ही छोड़ दी
सरूर के नशे में उँगलियाँ उठायी लोगों ने
तो उसने मय से भरी वो बोतल ही तोड़ दी
मेरी जानिब उठते हुए कुछ तीर-ए -नज़र
खंजर से भी तेज़ शमशीर से भी तीखे थे
उसने सह कर हर वार अपने जिस्म पर
वो दर्द की आंधियां अपनी तरफ मोड़ दी
बिन मांगे बिना शर्त अपना साथ देता रहा
मेरी हदों में अपनी हदें खुद ही समेटता रहा
मेरा वजूद बिन मिटाये मुझे वजूद दिया
मेरी रूह से बेसाख्ता अपनी रूह जोड़ दी
मेरे मोहसिन ने वो महफ़िल ही छोड़ दी
सरूर के नशे में उँगलियाँ उठायी लोगों ने
तो उसने मय से भरी वो बोतल ही तोड़ दी
मेरी जानिब उठते हुए कुछ तीर-ए -नज़र
खंजर से भी तेज़ शमशीर से भी तीखे थे
उसने सह कर हर वार अपने जिस्म पर
वो दर्द की आंधियां अपनी तरफ मोड़ दी
बिन मांगे बिना शर्त अपना साथ देता रहा
मेरी हदों में अपनी हदें खुद ही समेटता रहा
मेरा वजूद बिन मिटाये मुझे वजूद दिया
मेरी रूह से बेसाख्ता अपनी रूह जोड़ दी