रिम झिम...
ये वृष्टि की टिपटिपाहट है ....
या दिल में मचलते अरमानों की...????
ये मेरे आँखों में बरसते ख़्वाबों की आवाज़ गूंजती है..
या मेरे ख्यालों में उतारते तेरे जज़्बात की...
पता नहीं...
बस...
एक अहसास है..
जो जब जब लहू के साथ नसों में दौड़ता है, कुछ लफ्ज़ खुद-ब-खुद पन्नो पे बिखर जाते हैं...
और रिमझिम पर बरसने लगते हैं
बस...
ये ही है मेरी रिमझिम की शुरुआत की कहानी....
उम्मीद है आपको पसंद आएगी...
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Thursday, 14 June, 2012
वोह गालिबन खुद को खुदा समझ कर इतराते रहे
हम आदतन उनके सजदे में सर झुकाते रहे
संग का सीना रखने वाले संग न रहे सके
और हम खुद को काफिर से मुसलमां बनाते रहे ...
ghaaliban - often, sang - marble, kaafir - non- believer, muslamaan - one who worships
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