दिन सुबह से ही थका थका आता है
और टूट कर फिर रोज़ गुज़र जाता है
कैसी जिंदगी है दोस्तों के आजकल
वो सूरज भी कम रौशनी दिखता है.....
बस एक भीड़ सी दिखती है हरसूं
और हर आदमी अपने में मसरूफ है
हज़ारों चेहरे किसी अपने के लगते हैं
मगर हर शख्स पराया नज़र आता है ....
सुबह सोचतें हैं के शाम अच्छी होगी
शाम होते ही सुबह का इंतज़ार करते हैं
दिन भर रात का ख्याल चैन नहीं देता
और रात को दिन का डर सताता है ...
अचानक सब बदला सा लगने लगा है
और ये दिल उदास सा हो जाता है
कभी दोस्त दुश्मन दिखाई देते हैं
कभी दुश्मनों में दोस्त नज़र आता है ...
क्या बीतती हुई उम्र का ये खौफ है
या आते हुए वक़्त की दस्तक सुनती हूँ
क्या ये मेरा वहम है या ऐसा ही होता है
क्या सबकी जिंदगी में ये दौर आता है?

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