अब तो पैगाम भी दीवारों पर लिख दिए जाते हैं
कभी शायराना लिबास में कभी नज़्म के लिहाज़ से
ज़रुरत ही नहीं पड़ती रिश्तों में गर्मियां ढूँढने की
हर सवाल का जवाब मिलता है यहाँ एतराज़ से  ...
मिसाल दें भी तो क्या हासिल, के हर गोश में
यहाँ बैठा है कोई अपना ही अपनी ही आज़ से
शक अपनी नीयत पर करना बहुत मुश्किल है
लोग शक पैदा कर देते हैं ख़ूबसूरत अंदाज़ से
हमने घर के दर-ओ-दरवाज़े खोल रखे हैं कब से
देखे कौन दिलाता है निजात मेरे गम-ए-फ़राज़ से
शिकायतें हमे भी बेशुमार हैं उस ना-आशना से
लेकिन अब क्या उम्मीद रखें उस ना-शिनास से
लब खामोश रहते हैं और आँखें झुकी झुकी सी
तकाज़ा भी ना कर पाए किसी भी जवाज़ से
तेरे जानिब मेरी तवज्जो एक शौक है पुराना
वरना छोड़ दिया तुझे देखना गलत नज़र अंदाज़ से ...

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