दस्तूर-ए-हबीबी

चलो माना हम दस्तूर-ए-हबीबी नहीं जानते,
यारी निभाने का सलीका नहीं पहचानते,
फर्क प्यार और दोस्ती में हमें समझ नहीं आता.
इन रिश्तों को निभाना कहीं सिखाया नहीं जाता,
बहुत पशोपेश में पड़े हैं कैसे उन्हें समझायें,
इस कशमकश से निकल का रास्ता कहाँ से लाये,
मगर तुम तो समझदार हो,
इन सब मामलों में बहुत होशियार हो,
तुम्हें तो इन दोनों में फर्क करना आता है
फिर तुम्हारा दिल क्यूँ मचल मचल जाता है,
हमें तो लाख बार दिन रात समझाते हो,
फिर क्यूँ पग पग पर फिसल जाते हो,
कहते हो सिर्फ दोस्त हो हमारे,
कभी बताते हो अपनी जागी रातों के नजारे,
क्या तुम्हे पता है क्या चाहते हो,
क्यूँ हमें समझाकर खुद को झुठलाते हो,
तुम्हे भी शायद इस बात की हैरानी है,
दोस्ती और प्यार के फर्क पहचानने में परेशानी है!!!

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