पराया ....

तन्हाई को ओढ़कर जीए जाते हैं
नाब-ए-ज़हर हम पीये जाते हैं
भीड़ में घिरे रहते तो हैं हर वक़्त
लेकिन, एक अपने की तलाश किये हैं

जो पराया था अपना बन के सताता है कैसे
हर शब ख्वाब बन के आता है कैसे
क्यों ज़िन्दगी उसको अब तक ढूँढती है
क्यों उसका इंतज़ार रोजाना किये जाते हैं

न हाथों की लकीरों में समाया है
न तकदीर ने उसे हासिल कराया है
न रिश्तो नातों का बंधन है उसपे
फिर क्यों हम उसकी हसरत किये जाते हैं

एक चाँद बस सांझा है हमारी दूरियों में
बहुत दर्द दिल सहता है हमारी मजबूरियों में
जागते हुए उस पराये का नाम नहीं ले सकते
नींद में मगर उसको आवाज़ दिए जाते हैं

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