हमारा सुरूर

हम वो परवाने हैं जो शमा को रौशन करते हैं
हम वो परवाने नहीं जो शमा पे मचलते हैं
चुपचाप फना होना फितरत नहीं हमारी
हम पे शमा के आंसू मोम बन पिघलते हैं

महफिलों में जाना नहीं शौक है हमारा
हम से बज्म आबाद होते हैं और चलते हैं
जहाँ बैठे शाम को वहीं दौर चलता है
जहाँ सोये रात वहीं तारे निकलते हैं

न मय, न मीना, न साकी, न पैमाना,
हम इन नशों से दूर होकर चलते हैं
मगर सरूर का करें तो क्या करें
के हमारे ही नशे में यार हमारे ढलते हैं...

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