धर्म के नाम पे....

बन्दा कोई थकता नहीं ज़ुल्म करते करते,
ज़ुल्म मगर खुद पे कौन सहता है ,
फितरत से शिकारी हैं सब लोग यहाँ ,
इसलिए शायाद बेज़ुबान डर के रहता है ...

ये कुदरत भी चुपचाप देखती है लहू बहते
के यहाँ रोज़ सड़कों पे खून बहता है,
जिसमे आदमी अब तक भी जिंदा है,
जाने वो इंसान कहाँ रहता है ....

दरिया समंदर बाँट लिए लोगों ने
इस ज़मीन पे लकीरें खींच दी
ज़ंग जारी है हर मुल्क में के
देखें अब आस्मां पे कौन रहता है ...

बस कर अपनों को कत्ल करना के
दर्द सबका जिस्म बराबर सहता है
छोड़ दे उस मज़हब को जो ,
इंसान को इंसान से अलग होने को कहता है

तोड़ दे उस शक को जो आजकल
अपनों के दरमियाँ रहता है
फिर किसी का घर न जला क्यूंकि
हर घर में एक परिवार रहता है...

मत तोड़ गरचे किसी के ख्वाब नफरत से
बा-मुश्किल जो आँखों में टिका रहता है
अरे बन्दे खौफ कर उस खुदा का
जिसके नाम पे तू ये ज़ुल्म करता-ओ-सहता है

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