बीते पल

इक अनजान कमरे से उसने जब,
मेरा तारुफ़ कराया था,
उस अनजान कमरे में मुझे,
मेरा अक्स नज़र आया था....
उसके बिस्तर से मुझे अपनी,
खुशबू सी आई थी,
और उसके तकिये ने मुझे
मेरे नाम से बुलाया था....
उसकी सिलवटों से रिक्त चादर,
मेरी उँगलियों को खुद छू गई थी,
उसने मुझे उसकी जागी रातों के
पल पल का हिसाब बताया था...
न वो खिड़कियाँ मुझे जानती थी,
न दर वो दीवारे मुझे पहचानती थी,
फिर भी हर गोश ने मुझे,
अपनेपन का अह्सास दिलाया था...
इक तमन्ना पूरी हुई मेरी,
यूँ अचानक खुदा मेहरबान हुआ,
उसपे मेरी तमन्ना को उसने,
हमारी तमन्ना कहके बुलाया था...
वो बेशकीमती पल जिसमे,
इक युग हमने बिताया था,
मेरी साँसों में यूँ ढले जैसे,
मेरे जीवन का उसमे सरमाया था...
वो तीखी हवा और ठंडी दुपहरी,
उन कम्प्कपाते हाथो की हरारत,
और उसका छूना जैसे,
बारिश में आफताब निकल आया था...

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